Sunday, June 12, 2016


Sunday, April 24, 2016

दिनकर की कविताएं।

समर शेष है।। 


ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो
किसने कहा, युद्ध की बेला गई, शान्ति से बोलो?
किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।
फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले!
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी शेष भारत में अंधियाला है।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार।
वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर-वरण है।
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तस्तल हिलता है,
माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?

समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा।

समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,
कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।
समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।
समर शेष है, अभी मनुज-भक्षी हुँकार रहे हैं।
गाँधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल।
तिमिरपुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्कांड रचें ना!
सावधान, हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना।
बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे!
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।


कलम, आज उनकी जय बोल।।  

कलम, आज उनकी जय बोल!
जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफ़ानों में एक किनारे,
जल-जलकर बुझ गए किसी दिन-
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल!
कलम, आज उनकी जय बोल!
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ,
उगल रही लपट दिशाएँ,
जिनके सिंहनाद से सहमी-
धरती रही अभी तक डोल!
कलम, आज उनकी जय बोल!


कलम या तलवार


दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार 
मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार

अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान

कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली, 
दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली 

पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे, 
और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे 

एक भेद है और वहां निर्भय होते नर -नारी, 
कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी 

जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले, 
बादल में बिजली होती, होते दिमाग में गोले 

जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार, 
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार


 विजयी सदृश जियो रे 

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे
जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नई आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे
जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है
उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है
तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे
स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे
जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है
चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे
उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है
सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!

Saturday, May 24, 2014

रांझा मेरा रांझा (अंग्रेजी अनुवाद सहित) फिल्‍म क्‍वीन का गीत

क्‍वीन फिल्‍म का ये गाना बड़ा जज्‍बाती है।
इसके बोल और उसका अंग्रेज़ी तरजुमा यहां दिया जा रहा है।
ये हमें इंटरनेटी खोजबीन से प्राप्‍त हुआ है।
रेडियोवाणी पर ये गाना यहां सुना जा सकता है।

Kinna sohna yaar heere, vekhdi nazaara
Ranjha mere ranjha,
majjha (buffalloes) chaarda (grazing) bechara

What a beautiful sight it is for Heer
to watch her poor beloved grazing buffaloes

Main heer haan teri
Main peedh haan teri
Je tu baddal kaala
Main neer haan teri

I am your heer,
I am your pain,
If you're a black cloud,
I am your water.

Kar jaaniye raanjhe,
ho darr jaaniye ranjhe
Upparon teriyaan sochaan,
mar jaaniye raanjhe

I keep doing it, I keep getting scared
Thinking of you all the time, it kills me.

Mera Ranjha, main raanjhe di
Ranjha hai chit-chor
Je karke wo mil jaaye ta
Ki chahida hai hor

My beloved is mine, and I am his
He is such a heart stealer.
If by doing anything we become one,
I'd want nothing else.

Teri aan haan Ranjhe
Teri shaan haan Ranjhe
Dil vich mayyon dadka
Teri jaan haan Ranjhe

Your pride, O beloved,
Your grandeur O beloved,
In my heart beats
your life O beloved.

Kikkaran sukkhan lagiyaan
Umraan mukkan lagiyaan
Ho mainu mil gaya Ranjha
Nabzaan rukkan laggiyan

Keekar trees are drying up
Lives are coming to end,
I found my beloved,
and the pulse seems to stop..

Mera Ranjha, main raanjhe di
Ranjha hai chit-chor
Hunn taan mainu mil gaya Ranjha
Ki chahinda hai hor

My beloved is mine, and I am his
He is such a heart stealer.
Now that my beloved is mine,

I'd not want anything else.

Sunday, November 3, 2013

वे मैं चोरी चोरी

रेडियोवाणी पर हमने रेशमा का जो गीत लगाया है-- वे मैं चोरी चोरी-- उसके बोलों की इबारत यहां दी जा रही है। इस ब्‍लॉग से साभार है।

and the lyrics (penned by Manzoor Challa), with translation:

—–

vey main chori chori tere nall la layeiaan ahkhaan vey
वे मैं चोरी चोरी तेरे नल ला लयियां अखां वे
Silently and secretly I fell in love with you (transliteration: my eyes met yours)

.

main chori chori
vey main chori chori

vey main chori chori tere nall la layeiaan ahkhaan vey

main chori chori
vey main chori chori

.

duniya tonh jakhaan te mainh; duniya tonh
duniya tonh jakhaan te mainh (pause) pyaar tera rakhaan
दुनिया तोह जक्खान ते मैं प्यार तेरा रखां
I shy away from the world and keep safe my love (for you)

.

vey main chori chori tere nall la layeiaan ahkhaan vey

main chori chori
vey main chori chori

.

maa-peyan di lajj tere leyi main gavayein ve
(repeat)
माँ पयाँ दी लज्ज तेरे लेई मैं गवाईं वे
I sacrificed the honor of my parents for you

.

tu teh anjaan saadih kadarr na paayi ve
तू तेह अनजान साडिह कदर न पायी वेह
But you remain unaware and do not value me

.

phir vih mainh jhalee hoke; phir vih mainh
phir vih main jhalee hoke (pause) rah tera takkan
फिर विह मैं झली होके राह तेरा तकां
And yet, like an imbecile, I await your arrival

.

vey main chori chori tere nall la layeiaan ahkhaan vey

main chori chori
vey main chori chori

vey main chori chori tere nall la layeiaan ahkhaan vey

main chori chori
vey main chori chori

.

pyaar piche har koyi mittiyan vi chaan da
(repeat)
प्यार पिछे हर कोई मिट्टियाँ वी छान दा
In the pursuit of love, everyone toils (transliteration: everyone sieves sands)

.

disda na ik pal, vaeri meri jaan da
दिस्दा न इक पल वैरि मेरी जान दा
Not visible for a moment, an enemy to my peace

.

eh teh ve mainh jaanideiyan; eh te mainh
eh teh ve mainh jaanideiyan (pause) taenu mere jaiyyan lakhan
एह तान मैं जांदियाँ तैनु मेरे जैय्यां लखां
I know that, for you there are hundreds of thousands like me

.

vey main chori chori tere nall la layeiaan ahkhaan vey

main chori chori
vey main chori chori

vey main chori chori tere nall la layeiaan ahkhaan vey

main chori chori
vey main chori chori

.

changeya main jaatha taenu, lakhaan jind jaan tu
(repeat)
चंगेया मैं जाता तैनु लखां जिंद जान तू
I have found you to be a good person, you are a thousand lives to me

.

rajj gayiyaan paavein bibba jag te jahan tonh
रज्ज गईयाँ पावें बिब्बा जग ते जहान तोंह
even though, sweetheart, I’ve had my heart’s content of this world

.

das manzoor keevein; das man
das manzoor keevein (pause) dil nu main dakkaan
दस मंज़ूर कीवें दिल नू मैं दक्कां
Tell me, O Manzoor, how do I stop my heart

.

vey main chori chori tere nall la layeiaan ahkhaan vey

main chori chori
vey main chori chori

vey main chori chori tere nall la layeiaan ahkhaan vey

main chori chori
vey main chori chori

Sunday, December 16, 2012

मीरा : विचार से पर्दे तक का सफ़र [ Gulzar on the making of Meera ]


मूल पोस्ट 'खुश्‍बू-ए-गुलज़ार' ब्‍लॉग पर प्रकाशित है। लिंक ये रहा। 
http://gulzars.blogspot.in/2007/09/gulzar-on-making-of-meera.html


(फ़िल्म पूरी होने से पूर्व १५ दिसम्बर १९७५ को लिखा आलेख, राधाकृष्ण पर प्रकाशित 'मीरा' से साभार)


प्रेम जी आये एक रोज़ । सन १९७५ की बात है । साथ में बहल साहब थे - श्री ए.के. बहल । प्रेमजी ने बताया कि वह 'मीरा' बनाना चाहते हैं ।
बस, सुन के ही भर गया ! यह ख़याल कभी क्यों नहीं आया?
उस 'प्रेम दीवानी' का ख़याल शायद सिर्फ़ प्रेम जी को ही आ सकता था ।
बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रेम जी को 'दीवान-ए-ग़ालिब' ज़ुबानी याद है । ऐसी याददाश्त भी किसी दूसरे की नहीं देखी । उर्दू अदब के सिर्फ़ शौक़ीन नहीं, दीवाने हैं; और अन्ग्रेज़ी में कल तक आख़िरी किताब कौन-सी छपी है,
बता देंगे, और यह भी कि:
'मार्केट में अभी आयी नहीं । उसका 'थीम' कुछ ऐसा है...।'
किताबें ज़ुबानी याद रखने की उन्हें आदत-सी हो गयी है । ऐसे प्रोड्यूसर के साथ काम करना वैसे ही ख़ुशक़िस्मती की बात है, और फिर 'मीरा' जैसी फ़िल्म पर!

अगस्त १९७५ में 'मीरा' बनाने का फ़ैसला तय पा गया । १४ अक्तूबर सन १९७५ को 'मीरा' के मुहूर्त का दिन निकला । दिन दशहरे का था । यह ख़याल भी प्रेम जी का ही था कि मुहूर्त लताजी से करवाया जाये । आज की 'मीरा' तो वही हैं!
प्रेम जी ख़ुद बडे शर्मीले क़िस्म के इंसान हैं । बडे से बडा काम करके भी खुद पर्दे के पीछे रहते हैं । यह ज़िम्मेदारी उन्होने मुझे सौंप दी।

लता जी मुहूर्त के लिये तो राज़ी हो गयीं, लेकिन उन्होने फ़ौरन हमारे कान में यह बात भी डाल दी कि वह इस फ़िल्म के लिये गा नहीं सकेंगी। मौक़ा और वक़्त ऐसा था कि बहस करना मुनासिब न समझा, सो मुहूर्त हो गया, लेकिन लगा कि कहीं एक सुर कम रह गया है!
भूषण जी दिल्ली से मीरा पर किताबों का सूटकेस भरकर ला चुके थे, और उन्हें पढना, उलटना-पलटना शुरू कर चुके थे। किताबें बेहिसाब थीं, और मीरा कहीं भी नहीं! यह राम-कहानी आप भूषण जी की ज़ुबानी ही सुनियेगा । भूषणजी की याददाश्त भी कमाल की है; उन्हें जिल्द समेत किताब चट कर जाने की आदत है। और कहीं इतिहास की चर्चा छिड जाये तो बता देंगे - मोहन-जोदडो में चीटियों के बिल कहां कहां पर थे!
इतनी सारी उलझा देने वाली बातों में से , ज़ाहिर है, कोई एक रास्ता अपनाना ज़रूरी था । छोटी-मोटी समझ-बूझ के अनुसार जो चुना वही आप फ़िल्म में देखेंगे । लेकिन इस फ़िल्म की आप-बीती भी मीरा के संघर्ष से किसी तरह कम नहीं ।
सन १९७६ में स्क्रिप्ट तैयार हुई और जून १९७६ से शूटिंग शुरू होनी थी । उम्मीद थी, आठ-दस माह में फ़िल्म की शूटिंग पूरी हो जायेगी ।
'मीरा' के 'पति' की तलाश में उतनी ही दिक्कत हुई जितनी कि हेमा को अपनी ज़िन्दगी में... या कहिये, हेमा की मम्मी को बेटी का वर ढूंढने में हुई हो, या हो रही हो! कोई हीरो यह रोल करने को तैयार नहीं था । किस-किस की
ड्योढी पर शगुन की थाली गयी, कहना मुश्किल है । ख़ुद कृष्ण होते तो शायद... । आख़िरकार अमिताभ मान गये ।


१९ जून १९७६ को शूटिंग का पहला दिन था । इसीलिए मई में 'मेरे तो गिरधर गोपाल' की रिकार्डिंग रखी गयी थी । सबसे पहले इसी गाने को फ़िल्माना था । लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को हम लता जी की मर्ज़ी बता चुके थे; उन्हें फिर भी यक़ीन था कि वे लता जी को मना लेंगे। रिकार्डिंग से कुछ दिन पहले लक्ष्मीजी ने लताजी से बात की । और उन्होने फिर इंकार कर दिया । लक्ष्मीजी दुविधा में पड गये । मुझसे कहा कि आप ख़ुद एक बार और लताजी से कहकर देखिये । मैंने फिर बात की लताजी से । उनके ना गाने की वजह मुझे बहुत माक़ूल लगी । उन्होने बताया कि मीरा के दो प्राइवेट एल.पी. वह गा चुकी हैं और जिस श्रद्धा के साथ उन्होने मीरा के भजन गाये, उसके बाद अब वह किसी भी 'कमर्शियल' नज़रिये से मीरा के भजन नहीं गाना चहतीं। मैंने उनका फ़ैसला लक्ष्मी-प्यारे तक पहुंचा दिया, और दरख्वास्त की कि वह किसी और आवाज़ को चुन लें।
लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने फ़िल्म छोड दी। इस फ़िल्म में म्युज़िक देने से इंकार कर दिया।
हमारे पास कोई रास्ता नहीं था। फ़िल्म का सेट लग चुका था । प्रेमजी बहुत परेशान थे, लेकिन उनके हौसले का जवाब नहीं; बोले:

'मीरा सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं है.. एक मक़सद भी है.. बनायेंगे ज़रूर!'
गीतों को फ़िलहाल छोडकर हमने १९ जून १९७६ से फ़िल्म की शूटिंग शुरू कर दी । फ़िल्म में विद्या सिन्हा का प्रवेश अचानक हुआ । उस छोटे से रोल के लिये उसका राज़ी हो जाना मुझ पर एक निजी एहसान था । शायद दूसरी कोई हीरोइन उसके लिये तैयार न होती । पहली शूटिंग हमने हेमा और विद्या के साथ की, और गौरी के साथ - जिसने ललिता का रोल किया है ।
दो दिन में यह सेट ख़त्म हो गया।
एक बार फ़िर 'वर' की तलाश शुरू हुई । 'मीरा' के लिये म्युज़िक डायरेक्टर भी चाहिये था । 'पंचम', यानी आर.डी. बर्मन, मेरे दोस्त हैं । उनसे पूछा, वह भी तैयार न हुए। लता जी से ना गवा कर वह किसी वाद-विवाद या कंट्रोवर्सी में नहीं पडना चाहते थे।
इस नुक़्ते को लेकर किसी तरह के वाद-विवाद की बात मेरी समझ में भी नहीं आती थी । अब सभी तो दिलीप कुमार को लेकर फ़िल्में तो नहीं बनाते! और अगर दिलीप साब किसी फ़िल्म में काम ना करें तो... क्या प्रोड्यूसर फ़िल्में बनाना छोड दें, या डायरेक्टर डायरेक्शन से हाथ खींच ले? मुझे लगा - उन सब के 'कैरियर' सिर्फ़ एक आवाज़ के मोहताज हैं । उस आवाज़ के सहारे के बग़ैर कोई एक क़दम भी नहीं चल सकता । बहरहाल यह मसला म्युज़िक डायरेक्टर का था । कुछ हफ़्ते तो ऐसी परेशानी में गुज़रे कि लगता था, यह फ़िल्म ही ठप हो जायेगी । तभी फ़िल्म के आर्ट डायरेक्टर देश मुखर्जी ने एक दिन एक नाम सुझाया । और वह नाम फ़ौरन दिल-दिमाग़ में जड पकड गया - पंडित रविशंकर !
पंडितजी बहुत दिनों से अमरीका में रहते थे । हिन्दुस्तानी फ़िल्मों में म्युज़िक देना तो वह कब का छोड चुके थे!

पता-ठिकाना मालूम करना भी दूर की बात लगी, और फिर अगर वो मान भी जायें तो इतने गाने कब और कैसे रिकार्ड होंगे ? हर गाने कि रिकार्डिंग के लिये तो उन्हें अमरीका से बुलवाया नहीं जा सकता । फिर भी, एक चिराग़ जला तो सही... चाहे बहुत दूर ही सही ।
पांच-सात दिन की कोशिशों के बाद हम दोनों के दोस्त हितेन चौधरी ने पंडितजी का फ़ोन नम्बर लाकर दिया, और बतलाया कि फ़लां तारीख़ को वह तीन दिन के लिये इस नम्बर पे लंदन आकर ठहरेंगे । चाहें तो उनसे बात कर लीजिये । चौधरी साहब से हमने अनुरोध किया 'आप परिचय करवा दीजिये, हम बात कर लेंगे' ।
पंडित जी लंदन में थे । मैंने बात की ।
आवाज़ अगर शख्सियत से ढंके पर्दों को खोल कर कोई भेद बता सकती है, तो मैं कह सकता हूं - बातचीत के इस पहले मौक़े पर्ही मुझे उम्मीद हो गयी थी कि पंडित जी मान जायेंगे । इतनी बडी हस्ती होते हुए भी उनकी आवाज़ में बला की नम्रता थी । उनकी शर्त बहुत सादा और साफ़ थी - ' मुझे फ़िल्म की स्क्रिप्ट सुना दीजिये । अच्छी लगी तो ज़रूर संगीत दूंगा'
अगले दिन ही पंडित जी न्यूयार्क जा रहे थे । प्रेमजी ने फ़ौरन फ़ैसला कर लिया : 'आप न्यूयार्क जाइये और हितेन दा को साथ ले जाइये । आप जो मुनासिब समझें, वह फ़ैसला कर आइये ।'
हितेन-दा पुराने दोस्त हैं, मान गये । ३१ जुलाई १९७६ को मैं न्यूयार्क में था । लेकिन पंडित जी न्यूयार्क में नहीं थे।
३ अगस्त को पंडित जी न्यूयार्क लौट आये । उसी शाम उनसे मुलाक़ात हुई । मुलाक़ात के आधे घंटे बाद ही मैंने स्क्रिप्ट सुनानी शुरू कर दी । पूरे दो घंटे चालीस मिनट लगे मुझे स्क्रिप्ट सुनाने में । उसके तीन मिनट बाद ही
'मीरा' को म्युज़िक डायरेक्टर मिल गया !
बाकी सारी बातें हितेन-दा ने तय करा दीं ।
लताजी से जो बात हुई थी मैंने पंडित जी को बतला दी । उन्हें भी अफ़सोस ज़रूर हुआ कि लता जी गातीं तो अच्छा होता ।
लता जी उन दिनों वाशिंगटन में थीं । दो दिन बाद मेरा वाशिंगटन जाना हुआ तो मैंने लताजी से बात की और यह बता दिया कि पंडितजी 'मीरा' के लिये संगीत दे रहे हैं
वहीं - 'वाटरगेट होटल' में मुकेश जी से ज़िन्दगी की आख़िरी मुलाक़ात हुई । शायद नसीब में ऐसा होना लिखा था । रविशंकर जी के चुनाव पर उन्होने मुझे मुबारकबाद भी दी थी । वहीं, उसी दौरे में मुकेशजी का देहांत हो गया।

न्यूयार्क में एक दिन निहायत ख़ूबसूरत आवाज़ का फ़ोन आया :
'मैं फ़िल्मों में काम करना चाहती हूं, लेकिन आप किसी को बताइयेगा नहीं !'
'अरे' मैंने हैरत से कहा, 'आप फ़िल्मों में काम करेंगी तो छुपायेंगी कैसे?"
'छुपाने को थोडे ही कहती हूं, आप बताइयेगा नहीं ! लोग अपने आप देख लेंगे!'
वह दीप्ती थी - दीप्ती नवल ! किसी न किसी रोज़, एक ना एक फ़िल्म में आप उसे ज़रूर देखेंगे !
सोलह अगस्त तक मैं पंडित जी के साथ था । उनके बेहद व्यस्त प्रोग्राम में, जहां जहां वक़्त मिला, वह मीरा के भजनों पर काम करते रहे, स्क्रिप्ट पर अपने नोट विस्तार से लेते रहे । सोलह अगस्त को जब पंडित जी के साथ आख़िरी बैठक हुई तो उस दिन तक बम्बई में हमारी रिकार्डिंग की तमाम तारीख़ें और स्टुडियो बुक हो चुके थे । और सब से अहम बात जो तय हो चुकी थी, वह यह कि मीरा के गाने गायेंगी - वाणी जयराम

नवम्बर के शुरू में पंडित रविशंकर हिन्दुस्तान पहुंचे । २२ नवम्बर १९७६ से गानों की रिहर्सल शुरू हुई । ३० नवम्बर से महबूब स्टुडियो में वसंत मुदलियार कि देख रेख में 'मीरा' के गानों की रिकार्डिंग शुरू हुई और १५
दिसम्बर १९७६ तक 'मीरा' का पूरा म्युज़िक रिकार्ड हो चुका था! एक व्यक्ति, जिसने अनथक मेहनत की इस काम को पूरा करने में वह थे श्री विजय राघव राव, जो पंडित जी का दाहिना हाथ ही नहीं, दोनों हाथ हैं ।
मीरा का संगीत पूरा हुआ, शूटिंग की तैयारी शुरू हुई और...
अमिताभ बच्चन ने फ़िल्म छोड दी ।
'वर की तलाश फ़िर से शुरू हो गयी। फ़िल्म फिर रुक गयी ।

इस बार कई महीने लग गये। किसी नये कलाकार को भी लिया जा सकता था, मगर एक बडी मुश्किल थी कि उन्हीं दिनों 'मीरा' की ज़िन्दगी पर एक और फ़िल्म रिलीज़ हुई और फ़्लाप हो गयी । इंडस्ट्री में - मीरा की कहानी पर एक अभिशाप है - कहा जाने लगा । नये अभिनेता को लेकर प्रेमजी के लिये फ़िल्म बेचना ज़्यादा मुश्किल हो जाता । डिस्ट्रीब्यूटर्स की दिलचस्पी यूं ही टूट रही थी । उनका ख़याल था, प्रेम जी अब यह फ़िल्म पूरी नहीं कर पायेंगे । लेकिन एक बार फिर उनके हौसले की दाद देनी पडती है । चुपचाप वह अपने इंतजाम में लगे रहे । मुझसे कहा : 'आप शूटिंग शुरू कीजिये । 'मीरा' ख़ुद ही कोई रास्ता बतायेगी । अगर वह अपनी लगन से नहीं हटी, तो हन क्यों हट जायें ?'
२५ मई १९७७ से इस फ़िल्म की बक़ायदा शूटिंग शुरू हुई ।
राजा भोज के द्रुश्यों को छोडकर - जो भी शूटिंग मुमकिन थी - वह चलती रही । और फिर एक दिन अचानक ही राजा भोज मिल गये ।
विनोद खन्ना राजा भोज का रोल करने के लिये तैयार हो गये । वह महीना जनवरी का था, सन १९७८ ।

विनोद बस एक दिन के लिये सेट पर आये थे । बाक़ी तारीख़ें सितम्बर १९७८ से शुरू होती थीं और इस हिसाब से नवम्बर तक फ़िल्म पूरी हो जाती थी। अगस्त १९७८ में विनोद खन्ना ने फ़िल्म-लाइन त्याग देने का फ़ैसला कर लिया ।
जनवरी के उस एक दिन की बंदिश के लिये विनोद ने 'मीरा' पूरी करने की हामी भर ली थी । 'मीरा' समझिये कि बाल बाल बच गयी, वर्ना फिर वही तलाश शुरू हो जाती ! सितम्बर में विनोद ने शूटिंग शुरू की और इधर पंडित जी का तार भी मिला ।
मुझे ये बताने की मोहलत नहीं मिली कि सन १९७६ में जब फ़िल्म का संगीत रिकार्ड किया गया था तो हमने सितम्बर १९७७ की तारीख़ें फ़िल्म के बैकग्राउंड म्युज़िक के लिये तय कर ली थीं । अब सन १९७८ आ चुका था और पंडितजी पूछ रहे थे कि फ़िल्म का बैक-ग्राउन्ड म्युज़िच रिकार्ड होना कब शुरू होगा? क्योंकि इस साल सितम्बर में अगर बैक-ग्राउंड म्युज़िक न रिकार्ड हो पाया, तो पंडित जी अप्रैल १९७९ तक हिन्दुस्तान नहीं आ पायेंगे ।

प्रेम जी मुस्करा दिये । एक शेर पढा :
रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमां
हो रहेगा कुछ-ना-कुछ घबरायें क्या !
बडा प्यार आया प्रेमजी पर ।
१५ सितम्बर से २० सितम्बर १९७८ तक के बीच फ़िल्म का बैक-ग्राउंड म्युज़िक भी रिकार्ड कर लिया गया।
फ़िल्म का पूरा होना अभी काफ़ी दूर था । लेकिन पूरी फ़िल्म के हर सीन की अन्दाजन लम्बाई निकाल कर , बगैर फ़िल्म देखे , सिर्फ़ स्क्रिप्ट के भरोसे पर, हमने 'मीरा' का बैक-ग्राउंड म्युज़िक पूरा कर लिया । अक्तूबर से फिर शूटिंग शुरू कर ली । अब बैक-ग्राउंड म्युज़िक पहले था और 'सीन' बाद में ।

नवम्बर में फ़िल्म ख़त्म हो रही थी जब बम्बई में पीलिया की बीमारी फैली । इंडस्ट्री के बहुत से कलाकार उसकी लपेट में आ गये । पहली बार... हेमा की वजह से तारीख़ें कैंसिल हो गयीं । बेचारी बीमारी की गिरफ़्त में आ गयी ।
विनोद की तारीख़ों का मसला फिर वैसे ही सामने खडा है ।
हमारे एक 'मियां मुश्किल-कुशा' हैं - श्री तरन तारन । वही ऐसी मुश्किलें सुलझाते रहे हैं । यह मुश्किल भी उनके सामने रख दी है ।
यह दिसम्बर चल रहा है, आज की ताज़ा ख़बर के अनुसार ३० दिसम्बर को फ़िल्म ख़त्म कर
पाऊंगा।
अंग्रेज़ी में कहते हैं ना : 'टच-वुड'


१५ दिसम्बर, १९७८                                                                                      गुलज़ार

Friday, June 22, 2012

सरहद से पार आती सदाएं: मेहदी हसन पर ईश मधु तलवार


आवाजों को सरहदों के पार जाने से रोका नहीं जा सकता। शायद इसीलिए राजस्थान के
लूणा गांव की आवाज रेत के धोरों में बहती हुई पाकिस्तान में मेहदी हसन तक पहुंच
जाती है और वे यहां आने के लिए छटपटाने लगते हैं। पाकिस्तान से खबर है कि
अस्वस्थ होने के बावजूद वे एक बार फिर अपनी जन्म भूमि पर आना चाहते हैं।

राजस्थान के शेखावाटी अंचल में झुंझुनूं जिले के लूणा गांव की हवा में आज भी
मेहदी हसन की खुशबू तैरती है। देश विभाजन के बाद लगभग 20 वर्ष की उम्र में वे
लूणा गांव से उखड़ कर पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन इस गांव की यादें आज तक उनका
पीछा करती हैं। वक्त के साथ उनके ज्यादातर संगी-साथी भी अब इस दुनिया को छोड़कर
जा चुके हैं, लेकिन गांव के दरख्तों, कुओं की मुंडेरों और खेतों में उनकी महक
आज भी महसूस की जा सकती है।

छूटी हुई जन्म स्थली की मिट्टी से किसी इंसान को कितना प्यार हो सकता है इसे
1977 के उन दिनों में झांक कर देखा जा सकता है जब मेहदी हसन पाकिस्तान जाने के
बाद पहली बार लूणा आए और यहां की मिट्टी में लोट-पोट हो कर रोने लगे। उस समय
जयपुर में गजलों के एक कार्यक्रम के लिए वे सरकारी मेहमान बन कर जयपुर आए थे और
उनकी इच्छा पर उन्हें लूणा गांव ले जाया गया था। कारों का काफिला जब गांव की ओर
बढ़ रहा था तो रास्ते में उन्होंने अपनी गाड़ी रूकवा दी। काफिला थम गया। सड़क
किनारे एक टीले पर छोटा-सा मंदिर था, जहां रेत में लोटपोट हो कर वे पलटियां
खाने लगे और रोना शुरू कर दिया। कोई सोच नहीं सकता था कि धरती माता से ऐसे मिला
जा सकता है। ऐसा लग रहा था जैसे वे मां की गोद में लिपटकर रो रहे हों।

इस दृश्य के गवाह रहे कवि कृष्ण कल्पित बताते हैं-' वह भावुक कर देने वाला
अद्भूत दृश्य था। मेहदी हसन का बेटा भी उस समय उनके साथ था। वह घबरा गया कि
वालिद साहब को यह क्या हो गया? हमने उनसे कहा कि धैर्य रखें, कुछ नहीं होगा।
धीरे-धीरे वह शांत हो गए। बाद में उन्होंने बताया कि यहां बैठ कर वे भजन गया
करते थे।' मेहदी हसन ने तब यह भी बताया था कि पाकिस्तान में अब भी उनके परिवार
में सब लोग शेखावाटी में बोलते हैं। शेखावाटी की धरती उन्हें अपनी ओर खींचती
है।

मेहदी हसन के साथ इस यात्रा में आए उनके बेटे आसिफ मेहदी भी अब पाकिस्तान में
गजल गाते हैं और बाप-बेटे का एक साझा अलबम भी है-''दिल जो रोता है'
मेहदी हसन जब पहली बार लूणा आए तो पूरे गांव में हल्ला मच गया था-' मेंहद्यो
आयो है, मेंहद्यो आयो है। ' मेहदी हसन जहां जाते, लोग उनका छाछ-राबड़ी और
दूध-दही से स्वागत करते। इस यात्रा में झुंझुनूं में जिला कलेक्टर ने उनके
सम्मान में रात्रि भोज दिया था, लेकिन मेहदी हसन बिना बताए झुंझुनूं की एक
बस्ती में अपने रिश्ते की एक बहन के घर पहुंच गए और वहां मांग कर लहसन की चटनी
के साथ बाजरे की रोटी खाई। प्रशासनिक अधिकारी उन्हें ढूंढते रहे।

इस बार जब मेहदी हसन अपने गांव आएंगे तो शायद यह कहने वाला कोई नहीं मिलेगा कि
'मेंहद्यो आयो है।' गांव में अब एक नई पीढ़ी जन्म ले चुकी है, लेकिन वह इतना
जरूर जानती है कि इस गांव का मेहदी हसन गजल सम्राट है। जिन लोगों ने मेहदी हसन
को नहीं देखा, वे भी उन्हें प्यार और सम्मान करते है। शायद ऐसे ही वक्त के लिए
मेंहदी हसन ने यह गजल गाई है-''मौहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में
लेकिन हम न होंगे।'

लगभग 250 घरों के लूणा गांव में आज भी कोई कार जैसी चीज चली जाए तो लोगों को यह
समझते देर नहीं लगती कि मसला मेहदी हसन के साथ जुड़ा है। मेहदी हसन की वजह से
ही लूणा को एक सड़क उपहार में मिल गई है जो गांव तक जाती है। हमारी गाड़ी जैसे
ही गांव में पहुंचती है तो एक ग्रामीण सांवरा छूटते ही बताता है कि मेहदी हसन
के बारे में जानना है तो नारायण सिंह के पास चले जाओ। वही सब कुछ बता सकता है।

दरअसल, लूणा में मेहदी हसन का अब एक ही साथी बचा है- नारायण सिंह। मेहदी हसन के
एक दोस्त और हैं- अर्जुन सिंह, लेकिन वे विक्षिप्त हो चुके हैं और उन्हें कोई
सुधबुध नहीं है। गांव का एक रिटायर्ड फौजी रामेश्वर लाल बताता है- ''मेहदी हसन
मेरे पिताजी (मालाराम) के अच्छे दोस्त थे। उनके साथ गांव में कबड्डी खेलते थे,
अखाड़े में कुश्ती करते थे। मेरे पिताजी के साथ उनकी फोटो भी थी, लेकिन अब वह
भी नहीं रहे।' गांव में लोगों से बातचीत में ही यह पता चलता है कि अपने सुरों
से दुनिया में राज करने वाले मेहदी हसन पहलवानी भी करते थे।

शाम के झुरमुट में हम गांव की गलियों से गुजरते हैं। गांव के छान-छप्परों से
धुआं उठ रहा था। लगा हवा में लहराते दरख्त मेहदी हसन की गजल गुनगुना उठे हों-
''ये धुआं सा कहां से उठता है, देख तो दिल कि जां से उठता हैं ' कुओं पर बीते
वक्त की वास्तु के पनघट बने हैं। इन पर चकली की जगह लकड़ी के बड़े चक्के लगे
हैं जिन पर कभी चरस से पानी खींचा जाता होगा। एक सरकारी स्कूल के परिसर में ही
पिछवाड़े एक मजार है। यह मेहदी हसन के दादा इमाम खां की मजार है, जो शास्त्रीय
संगीत के अच्छे ज्ञाता माने जाते थे। उन्हीं से मेहदी हसन ने गायन सीखा। मजार
पर पहले कुछ नहीं था।

एक ग्रामीण युवक मुकुट सिंह ने बताया कि कोई एक दशक पहले मेहदी हसन निजी यात्रा
पर इस मजार को ठीक कराने के लिए ही आए थे। तब वे झुंझुनूं से अपने साथ दो
कारीगर लेकर आए थे, जिनसे मजार पर कुछ निर्माण कराया। मेहदी हसन की इस यात्रा
के पीछे छिपे उनके दर्द को महसूस किया जा सकता है। अपनी जमीन से उखड़ जाने पर
पीछे छूटी यादें किसी यातना से कम नहीं होती। मजार की बदहाली देखकर रोना आता
है। मजार अब भी उतनी ही वीरान और सन्नाटे से भरी है, जितना उसके पास खड़ा एक
सूखा दरख्त। यह मजार ही जैसे मेहदी हसन को लूणा बुलाती रहती है। मानो रेत के
धोरों में हवा गुनगुनाने लगती है- '' भूली बिसरी चंद उम्मीदें, चंद फसाने याद
आए, तुम याद आए और तुम्हारे साथ जमाने याद आए।'' नारायण सिंह कभी-कभी जुम्मे पर
इस मजार पर हो आते हैं।

नारायण सिंह अपने बेटों-पोतों के साथ ही कई घरों के बीच बनी एक कोठरी में रहते
हैं, लेकिन भगवा वस्त्रों में। दस साल पहले अपनी पत्नी के निधन के बाद उन्होंने
संन्यास ले लिया। कोठरी में एक तानपुरा भी रखा है। उन्होंने बताया कि मेहदी हसन
के दादा इमाम खां से उन्होंने भी संगीत की तालीम पाई। आध्यात्मिक संगीत में
उनकी रूचि है, लेकिन गजलें उन्हें नहीं आती। मेहदी हसन की भी कोई गजल उनको याद
नहीं। वे कहते हैं- ''मेहदी हसन ने शास्त्रीय रागों से गजल को जोड़ा, इसलिए वे
प्रसिद्ध हुए।'' नारायण सिंह दिनभर अपनी पुरानी किताबों की जिल्द बनाकर सिलाई
करते रहते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें कुरान भी आती है। उन्होंने रामचरित मानस
के उर्दू अनुवाद की एक दुर्लभ पुस्तक भी दिखाई।

लूणा गांव में लगभग 8 वर्ष की उम्र में ही मेहदी हसन ने ठुमरी, खयाल और दादरा
में गायकी सीख ली थी। अपने पिता उस्ताद अजीम खां से भी उन्होंने शास्त्रीय गायन
की तालीम ली। रेत के धोरों में संगीत की स्वर लहरियां जैसे आज भी मेहदी हसन को
सुनाई देती हैं और वे इस धरती पर खिंच कर चले आते हैं।

गांव में किसी से भी पूछो कि मेहदी हसन के पुराने घर कहां हैं, तो लोग सकुचाने
लगते हैं। ज्यादातर लोग जुबान सिल लेते हैं। लगता है जैसे कोई गलत बात पूछ ली
हो। एक ग्रामीण रामेश्वर दबे स्वरों में बताता है-'' जहां मेहदी हसन के कच्चे
घर थे, वहां अब भागीरथ मीणा की पक्की कोठी है। ऐसी कोठी पूरे गांव में नहीं है।
मीणा एक सरकारी अधिकारी हैं जो बाहर रहते हैं।''

पूरे गांव में बहती फिजां में मेहदी हसन की मौजूदगी का अहसास लगातार बना रहता
है, लेकिन उनकी पुरानी यादों के ज्यादा पन्ने अब खुल कर सामने नहीं आते। उनके
साथी नारायण सिंह के जेहन में भी बचपन की ज्यादा यादें बची नहीं हैं। वे अपनी
उम्र 90 वर्ष बताते हैं, हालांकि इतनी उम्र के लगते नहीं हैं। कहते हैं-
''मेहदी हसन के पिता अजीम खां मंडावा के ठाकुर के यहां दरबारी गायक थे जिन्हें
गाने के बदले ठाकुर साहब से जमीन भी मिलती थी। चाचा इस्माइल खां पहलवान थे,
जिनके अखाड़े में मेहदी हसन और उनके बड़े भाई गुलाम कादिर के साथ मैं भी जाता
था। मेहदी हसन की दो बहनें थीं- रहमी और भूरी।''

मेहदी हसन जब भी लूणा गांव आते हैं, वे नारायण सिंह से जरूर मिलते हैं। वे दो
बार सरकारी मेहमान बन कर भी आ चुके हैं। लूणा इस बार फिर उनके आने की प्रतीक्षा
कर रहा है। हैरत की बात यह है कि लूणा को लेकर मेहदी हसन के दिल में आज भी
जुनून कम नहीं हुआ है। समय की परतें भी इसे दबा नहीं पाई हैं। तानसेन के बारे
कहा जाता है कि लोग उनकी मजार पर जाते हैं तो कान के पीछे हाथ लगाकर सुनने की
कोशिश करते हैं- क्या पता कब उनके सुर फूट पड़े। लूणा गांव भी उनके आने की
आहटों को कुछ इसी तरह सुनता रहता है। इस बार जब वे लूणा गांव आकर वापस लौटेंगे
तो कौन जाने उनके मन में अपनी ही गजल के ये स्वर गूंज रहे होंगे-'' अब के हम
बिछुड़े तो शायद ख्वाबों में मिलें, जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।''

Monday, April 9, 2012

पंकज मल्लिक अनमोल तथ्‍य

पंकज मल्लिक एकदम शुरूआत से यानी 1927 से ही रेडियो कोलकाता का हिस्‍सा रहे थे।
रेडियो से उनका जुड़ाव इतना गहरा था कि वे आजीवन हर वर्ष दुर्गा पूजा के मौक़े पर 'महिषासुर मर्दिनी' नामक सजीव रेडियो प्रसारण करते थे। इसकी शुरूआत 1931 में हुई थी। आगे चलकर इसका एल.पी. भी जारी किया गया। जो हमारे संग्रह का गौरवशाली हिस्‍सा है। तकरीबन पचास वर्षों तक पंकज मल्लिक रेडियो का हिस्‍सा रहे।

विविध-भारती के पास पंकज मल्लिक का एक पांच मिनिट का अनमोल इंटरव्‍यू है। जिसमें उन्‍होंने अपने जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं के बारे में बताया है।

पंकज मलिक के संगीत निर्देशन में ना केवल कुंदनलाल सहगल ने गाया है। बल्कि सचिन देव बर्मन, हेमंत कुमार गीता रॉय और आशा भोसले जैसे हिंदी संगीत के दिग्‍गजों ने गाया। 1973 में पंकज मल्लिक को सिनेमा में महत्‍वपूर्ण योगदान के लिए दादासाहेब फालके पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया गया था।

फिल्‍म्‍स डिविजन ने पंकज मल्लिक पर एक वृत्‍तचित्र तैयार किया है। जिसे आप ऑनलाइन यहां देख सकते हैं।

पंकज मल्लिक के अनमोल चित्रों के लिए यहां क्लिक कीजिए।

 

रेडियोवाणी पर पंकज मल्लिक का गीत--'तेरे मंदिर का हूं दीपक' यहां सुना जा सकता है।